Wednesday 5 November 2014



उससे बात हो गई 





फ़ोन उठाया,
                       निकल लिया 
दोस्तों की महफ़िल थी,
          बस अकेला चल लिया 
न जाने क्यूँ,
                 इस फ़ोन की घंटी 
                        खास हो गई;
अभी तक तो कोरा था 
पर अब किसी से बात हो गई । 

घंटों बीत जाते हैं,
               उससे बतियाने में 
वो ही याद आती है, 
       हर नगमें और तरानें में 
न जाने क्यूँ ,
         इन अधरों के मुस्कान 
                       साथ हो गई;
अभी तक तो तन्हा था 
 पर अब उससे बात हो गई ।

~ कान्हा 'नूतन '

Monday 6 October 2014

"हाँ, प्यार मैं तुझसे करता हूँ"

क लड़की है भोली‍‌‍ भाली सी,
कुछ सीधी है मतवाली सी,
कुछ सादी है नखराली सी,
बगिया की है फूलवारी सी,
जिसको मैं नारी रुप का, पूरा श्रृंगार समझता हूँ;
हाँ, प्यार मैं उससे करता हूँ |

वो पापा की बिटिया प्यारी है,
वो राजा की राजकुमारी है,
वो आँगन की किलकारी है,
वो मुस्काए मधु पर भारी है,
जिसके लिए मैं अपना पूरा, लेखन न्यौछावर करता हूँ;
हाँ, प्यार मैं उससे करता हूँ |

वो सावन में झूले झूलती है,
वो बेपरवाह सी घूमती है,
वो तारें आसमाँ के चूमती है,
वो खुलकर मस्ती में झूमती है,
जिसके लिए मैं जीवन को, एक उपहार समझता हूँ;
हाँ, प्यार मैं उससे करता हूँ |

तम को खुद में हर लेती है,
नव किरण फैला देती  है,
स्वभाव में आशा साथ लिए,
मुरझे फूलों को महका देती है,
जिसके लिए मैं जीवन की, इच्छा साकार समझता हूँ;
हाँ, प्यार मैं उससे करता हूँ |

तू समझ गयी इन छंदो को,
या अब भी रह गई उलझी सी,
कुछ मिला तूझे इस रचना में,
या बैठी यूँ ही अनसूलझी सी,
तू जान गयी तो बस इसको ही, सच्चा प्यार मैं कहता हूँ;
हाँ, प्यार मैं तुझसे करता हूँ.....
हाँ, प्यार मैं तुझसे करता हूँ |


Sunday 21 September 2014

अर्द्धांगिनी

जब से दोनों का हाथ मिला 
हर संकट में तेरा साथ मिला 
तू  जो मुझसे रूठी ना 
ये डोर जो अपनी टूटी ना 
तू  खुशियों में मेरे साथ घुली 
काँटों पर मेरे साथ चली 
तूने यम को भी सम्मुख झुका दिया 
मुझको रिश्ते का मतलब सीखा दिया ॥ 


तेरा चरित्र महान  होगा 
हर सजा को मेरे साथ भोगा 
जीवन  तेरा बस समर्पण है 
मेरी मुस्कान ये तुझको अर्पण है 
हर मर्ज की दवा है तू मेरी 
ईश्वर की दुआ है तू मेरी 
तूने आग को भी पार करके दिखा दिया 
मुझको रिश्ते का मतलब सीखा दिया ॥


मेरी हर बात  पढ़ लेती 
बिन कहे लफ़्ज़ों को समझ लेती 
खुद की तुझको परवाह थी कहाँ 
ध्यान वहीं मैं था जहाँ 
ये घर तेरा रखवाला है 
तूने ही घर कर डाला है 
तूने ' एक देह दो रूह ' को सार्थक बना दिया 
मुझको रिश्ते का मतलब सीखा दिया ॥ 


नालायक हैं वे जो दहेज़-पूँजी लेते हैं 
बेटी वाले तो  खुशियों की कुँजी देते हैं 
वो है रंगोली उस घर की ,जो पाँव तले तुम दबाते हो 
उसका रूप तो विकृत हुआ ,खुद ही लक्ष्मी ठुकराते हो
तुम खींचो जितना भी उसे ,वो तनाव को सह लेगी 
मैं दो घरों की बँधी डोर ,मन ही मन ये कह लेगी 
उसको प्रताड़ित करके तो ,तुमने  खुद को ही लजा दिया 
वो है एक देवी का रूप ,
उसने  शक्ति का मतलब सीखा दिया॥ 

~ कान्हा'नूतन'

Friday 5 September 2014

गुरूजी

जीवन के पथ पर था निकल पड़ा
अनजाने, सब साथी थे
अनदेखी एक मंजिल थी
ना मोड़ थे मुझको पता यहाँ
ना काँटो का था दर्द पता।
तेरे अनुमार्ग पर चलकर ही
मैं जो कुछ हूँ वो बन पाया
ख्वाबों मैं थे आयाम कई
अब रूप साकार है मिल पाया।
तेरे मुझ पर विश्वास बिन
सफल नहीं मैं हो पाता
जो भी हूँ वो तुझसे है
तुझ बिन भला क्या हो पाता;
तुझ बिन भला क्या हो पाता..॥
~कान्हा'नूतन'

Thursday 4 September 2014

बेटी


बेटी ही घर की मर्यादा है;
बेटी से घर की
हर कली खिली।
बेटी ने धरा को सींचा है;
दो रिश्तों की
इसमें नींव पली।

क्यों रोको तुम इसको
बढ़ने से
इसे ओढ़नी ,घुँघट में  समेटे हो।
चिराग  तो घर में
बहुत हैं पर
रोशनी को थामे बैठे हो ॥॥

कान्हा 'नूतन '

Sunday 31 August 2014


" तुम बिन "


हर लम्हा तन्हा  हूँ तुम बिन । 
हर जख़्म सहता हूँ तुम बिन । 
मेरी तो साँस भी तेरे नाम संग चलती है ;
वरना जी नहीं सकता हूँ तुम बिन ।  
                                                                                                            ~ कान्हा 'नूतन '

Thursday 28 August 2014


                                                                           " रूप " 


             एक  चाँद आसमाँ में , पूरी सृष्टि के सामने । 
             एक  चाँद आगे खड़ा , मेरी द्रष्टि के सामने । 
             आँखों में उसके सुरमा , नज़र उसकी उतारने । 
             पाँवों में पहनी है पायल , चरण को पखारने । 
             माथे पे उसके बिन्दिया , सूरत को निहारने । 
            केशों में लगे हैं फूल भी , यूँ जुल्फ को निखारने । 

             श्रृंगार गान करने को कबसे था तरस गया ।
             रूप तेरा देखा ,  तू मन में बस गया ॥

                                                                           ~ कान्हा  'नूतन '

Monday 4 August 2014

" श्रृंगार रूपक "


क्या लिखूं मैं उसके बारे में, मैं खुद उलझा सा बैठा हूँ ।
उसके मन का कोना तक जानूं, खुद से अनजाना बैठा हूँ ।
हर जगह मैं उसको पाता हूँ, खुद से खुद को खो बैठा हूँ ।
मैं एक दीपक हूँ, उस बाती की आग समेटे बैठा हूँ ॥

                                                                                                                                

  -कान्हा'नूतन'